सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
घनाक्षरी छन्द पर आयोजित चौथी समस्या पूर्ति के इस सातवें चक्र में भी पढ़ते हैं एक इंजीनियर कवि को| इंजीनियर होने के नाते शब्दों की साज़-सज्जा काफ़ी बेहतरीन किस्म की करते हैं ये| छन्दों के प्राचीन प्रारूप को सम्मान देते हैं और नई-नई बातों को बतियाते हैं| आइए पढ़ते हैं इन के द्वारा भेजे गये छन्द:-
देवरानी मोबाइल, ले कर है घूम रही,
भतीजी ने सूट लिया, दोनों मुझे चाहिये|
सासू जी ने खुलवाया, नया खाता बचत का,
और ज्यादा नहीं मेरा, मुँह खुलवाइये|
ऐश सब कर रहे, हम यहाँ मर रहे,
बोल पड़ा मैं तुरंत, चुप रह जाइये|
सब अपने ही लोग, रहें खुश चाहता मैं,
राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये||
[एकता कपूर उर्फ छोटे पर्दे की दादी अम्मा और टी. वी. महारानी की इस युग की विशेष
मेहरबानी रूप घर घर की कहानी कैसे कैसे गुल खिला रही है - इस का बहुत ही अच्छा
उदाहरण देखने को मिलता है इस छन्द में| छंदों को जन-मानस से जुडने के लिए
उन की बातें बतियाना बहुत जरूरी है]
आँख जैसे रोशनाई डल-झील में गिरी हो,
गाल जैसे गेरू कुछ दूध में मिलाया है|
केश तेरे लहराते जैसे काली नागिनों को,
काले नागों ने पकड़, अंग से लगाया है|
होंठ जैसे शहद में, पंखुड़ी गुलाब की हो,
पलकों ने बोझ, सारे - जहाँ का उठाया है|
कोई उपमान नहीं, तेरे इस बदन का,
देख तेरी सुंदरता चाँद भी लजाया है||
[रूपक व उपमा जैसे अलंकारों से सुसज्जित इस छन्द की जितनी तारीफ की जाए कम है|
डल-झील, गेरू-दूध के अलावा पलकों ने सारा बोझ वाली बातों के साथ यह घनाक्षरी
किस माने में किसी रोमांटिक ग़ज़ल से कम है भाई? आप ही बोलो...]
सूखा-नाटा बुड्ढा देखो, चला ब्याह करने को,
तन को करार नहीं, मन बेकरार है|
आँख दाँत कमजोर, पाजामा है बिन डोर,
बनियान हर छोर, देखो तार-तार है|
सरकता थोड़ा-थोड़ा, मरियल सा है घोडा,
लगे ज्यों गधा निगोड़ा, गधे पे सवार है|
जयमाल होवे कैसे, सीढ़ी हेतु हैं न पैसे,
बन्नो का बदन जैसे क़ुतुब मीनार है||
[करार-बेकरार, कमजोर-बिन डोर-हर छोर, थोड़ा-घोड़ा-निगोड़ा और कैसे-जैसे शब्द प्रयोगों
के साथ आपने अनुप्रास अलंकार की जो छटा दर्शाई है, भाई वाह| जियो यार जियो]
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और अब बारी है उस छन्द की जिस का मुझे भी बेसब्री से इंतज़ार था| श्लेष अलंकार को लक्ष्य कर के आमंत्रित इस छंद में कवि ने 'नार' शब्द के जो दो अर्थ लिए हैं वो हैं [१] गर्भनाल, और [2] कमलनाल| छन्द क्यों विशेष लगा इस बारे में बाद में, पहले पढ़ते हैं इस छन्द को|
'पोषक' ये खींचती है, तन को ये सींचती है,
द्रव में ये डूबी रहे, किन्तु कभी गले ना|
जोड़ कर रखती है, जच्चा-बच्चा एक साथ,
है महत्वपूर्ण, किन्तु - पड़े कभी गले ना|
जब तक साथ रहे, अंग जैसी बात रहे,
काट कर हटा भी दो, तो भी इसे खले ना|
पहला-पहला प्यार, दोनों पाते हैं इसी से,
'शिशु' हो या हो 'जलज', "नार" बिन चले ना||
[अब देखिये क्या खासियत है इस छन्द की| पहले आप इस पूरे छन्द को (आखिरी चरण
को छोड़ कर) गर्भनाल समझते हुए पढ़िये, आप पाएंगे - कही गई हर बात इसी अर्थ का
प्रतिनिधित्व कर रही है|दूसरी मर्तबा आप इसी छन्द को कमलनाल के बारे में समझते
हुए पढ़िये, आप पाएंगे यह छन्द कमलनाल के ऊपर ही लिखा गया है| यही है जादू
इस विशेष पंक्ति वाले छन्द का| इस प्रस्तुति के पहले वाले छन्द भी श्लेष पर हैं,
पर यह छन्द पूरी तरह से सिर्फ एक शब्द के अर्थों में ही भेद करते हुए श्लेष का
जादू दिखा रहा है| इसके अलावा इस छन्द में एक और चमत्कार है| 'गले ना'
शब्द प्रयोग दो बार है| एक बार उस का अर्थ है 'गर्भनाल / कमलनाल द्रव
में रहते हुए भी गलती नहीं है', और दूसरा अर्थ है 'गले नहीं पड़ती'|
है ना चमत्कार, यमक अलंकार का? इस अद्भुत प्रस्तुति
के लिए धर्मेन्द्र भाई को बहुत बहुत बधाई]
जय हो दोस्तो आप सभी की और अनेकानेक साधुवाद आप लोगों के सतप्रयासों हेतु| धर्मेन्द्र भाई के छंदों का आनंद लीजिये, टिप्पणी अवश्य दीजिएगा| जिन कवि / कवियात्रियों के छन्द अभी प्रकाशित होने बाकी हैं, यदि वो उन में कुछ हेरफेर करना चाहें, तो यथा शीघ्र करें| जिन के छन्द प्रकाशित हो चुके हैं, वो फिर से छन्द न भेजें|
जय माँ शारदे!
घनाक्षरी में गुलाब की खुशबू और शहद की मिठास का आभास हो रहा है!
जवाब देंहटाएंkmal ke ghnakshri chhand
जवाब देंहटाएंbdhaai ho
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंधर्मेन्द्र जी के सभी छंद लाजबाब हैं भाई. आख़िरी में तो उनकी महारत स्पष्ट दिखती है. गर्भनाल और कमलनाल .... अरे भाई, ये तो टू इन वन है. एक कविता में दो का मजा. धन्यवाद धर्मेन्द्र जी, इतने अच्छे छंद पढ़ने को मिले.
जवाब देंहटाएंवाह... वाह.... बहुत खूब... लाजवाब घनाक्षरी... बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया छंद हैं सभी ! बधाई एवं अभिनन्दन !
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ सीखने को मिल रहा है।
जवाब देंहटाएंभाई साहब "गर्भनाल "का बखान इतने सुन्दर छंद में -और फिर उसके बाद चढ़ी जवानी बुद्धे नू ...
जवाब देंहटाएंमैं का करू राम मुझे बुड्ढा मिल गया ।
तारीफ़ करू क्या उसकी जिसने तुम्हें (घनाक्षरी )को बनाया .
धर्मेन्द्र जी को ढेर सारी बधाई। गर्भनाल और कमल नाल का बहुत ही सुन्दर प्रयोग किया है। नवीन जी आपका श्रम रंग ला रहा है, एक से बढ़कर एक छंद पढ़ने को मिल रहे हैं। अब इतनी आमद हो गयी है कि रोक लगानी पड़ रही है, वाह।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लिखा है |
जवाब देंहटाएंआशा
वाह ! धर्मेन्द्र भाई क्या कहने ! दिल खुश हो गया | आखिरी छंद तो गज़ब ढा गया | वाह ! वाह !!!!
जवाब देंहटाएंसब अपने ही लोग, रहें खुश चाहता मैं,
जवाब देंहटाएंराजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये||
लाजवाब प्रस्तुति। धन्यवाद।
रूपचंद जी, दिलबाग जी, शेषधर जी, सलिल जी, साधना जी, वीरूभाई जी, मनोज जी, अजित जी, आशा जी, शेखर जी एवं निर्मला जी आप सबका बहुत बहुत शुक्रिया और नवीन भाई का बहुत बहुत धन्यवाद इन अकिंचन छंदो को इतना मान देने और ब्लॉग में स्थान देने के लिए।
जवाब देंहटाएंलाज़वाब रचनाएं..बहुत रोचक
जवाब देंहटाएंधर्मेन्द्र जी ने जिस खूबसूरती से खास पंक्ति का निर्वाह किया है उसकी जितनी तारीफ़ की जात कम है, नार को गर्भनाल और कमलनाल के सन्दर्भ में भी लिखा जा सकता है यह तो सोचा ही नहीं था
जवाब देंहटाएंऔर हास्य वाला छंद तो इतना मजेदार लिखा है कि क्या कहने
बहुत बहुत बधाई धर्मेद्र जी को और आभार नवीन जी का इतने खूबसूरत छंद पढवाने के लिए
कैलाश जी और वीनस भाई बहुत बहुत शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंचारों छंद बहुत सुन्दर ....
जवाब देंहटाएंभाई धर्मेन्द्र सिंह ने भाव , शिल्प और कथ्य ..........से समृद्ध घनाक्षरियाँ लिखी हैं
धर्मेन्द्र कुमार जी के सभी छंद चित्ताकर्षक हैं।
जवाब देंहटाएंबधाई एवं शुभकामनाएं।
सब अपने ही लोग, रहें खुश चाहता मैं,
जवाब देंहटाएंराजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये||
रचना का कथ्य बहुत अच्छा और सामयिक है मगर न जाने क्यों प्रवाह में कुछ कमी महसूस हो रही है।
सुरेन्द्र जी, महेन्द्र जी एवं देवमणि जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं@आदरणीय देवमणि जी - घनाक्षरी छंदों में प्रवाह शब्दों को पढ़ने के तरीके पर भी निर्भर करता है अर्थात किस अक्षर पर आप जोर देते हैं इस पर भी निर्भर करता है। कई बार प्रवाह पैदा करने के लिए पढ़ने का तरीका बदलना भी पड़ता है। जैसे "देख तेरी सुंदरता" को "दे’ख ते’री सुनदरता" पढ़ना पड़ेगा प्रवाह बनाए रखने के लिए।
धर्मेन्द्र जी सभी छंद कमाल के हैं...आखरी वाला तो हतप्रभ कर गया...गर्भ नाल और कमल नाल को जिस तरह से प्रस्तुत किया है वो अद्वितीय है...इस में कोई दो राय नहीं के इस तरह के छंद लिखने के लिए माँ सरस्वती के दोनों हाथ सर पर चाहियें....
जवाब देंहटाएंनीरज
बहुत बहुत शुक्रिया नीरज जी।
जवाब देंहटाएंधर्मेन्द्र भाई ,बधाई स्वीकारिये इन मनोहारी घनाक्षरी छंदों के लिए ...हास्य श्रंगार और श्लेष अलंकार के उत्तम प्रयोग का दर्शन करवाना आप जैसे सिद्ध कवि के द्वारा ही संभव है ....एकता कपूर के सीरियलो के सार तत्व का बड़ा मनभावन उपयोग आपने किया है बधाई ....
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया बृजेश जी, आप जैसे काव्य रसिकों का प्यार ही लिखवा रहा है।
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