सभी साहित्य रसिकों का अभिवादन
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम।।
सरल भावार्थ - बुद्धियुक्त मनुष्य इस जीवन में ही अपने आप को अच्छे-बुरे कर्म / फल से मुक्त कर लेता है। चूंकि सभी कर्मों में यही योग [कर्म प्रयास] उत्तम / कुशल है, इसलिए इसी योग [कर्म प्रयास] के लिए जुट जाना चाहिए।
(सन्दर्भ - श्रीमद्भग्वद्गीता - अध्याय २ श्लोक ५०)
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम।।
सरल भावार्थ - बुद्धियुक्त मनुष्य इस जीवन में ही अपने आप को अच्छे-बुरे कर्म / फल से मुक्त कर लेता है। चूंकि सभी कर्मों में यही योग [कर्म प्रयास] उत्तम / कुशल है, इसलिए इसी योग [कर्म प्रयास] के लिए जुट जाना चाहिए।
(सन्दर्भ - श्रीमद्भग्वद्गीता - अध्याय २ श्लोक ५०)
कितनी छोटी पर कितनी गहन बात। इस मंच पर आज पहली बार पधार रहे हैं आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी। नैनी, इलाहाबाद को अपने संस्कारों में सहेजे माटी के सपूत और अपनी जननी को गौरवान्वित करने वाले इस व्यक्तित्व का परिचय आप स्वयं उन के छंदों के माध्यम से प्राप्त करें।
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'कसौटी' जिन्दगी की
[सौरभ जी के इन छंदों को कपिल दत्त की आवाज़ में सुनें]
यह 'सत्य', 'निज अन्तःकरण' का - 'सत्व-भासित ज्ञान' है।
मन का कसा जाना, कसौटी - पर 'मनस-उत्थान' है।।
जो कुछ मिला है आज तक, क्या - है सुलभ? बस होड़ से।
इस जिन्दगी की राह अद्भुत, प्रश्न हैं हर मोड़ से ।१।
अब नीतियाँ चाहे कहें जो, सच मगर है एक ही।
जब तक न हो मन स्वच्छ-निर्मल, दिग्भ्रमित है मन वही।।
रंगीन जल है ’क्लेष’ मन का, ’काम’ भी जल, पात्र का।
परिशुद्ध जल से, पात्र भरना, कर्म हो, जन मात्र का ।२।
जिससे सधे उद्विग्न मन, वह, ’संतुलन’ का ज्ञान है।
फिर, सुख मिले या दुख मिले, हो शांत मन, कल्याण है।।
जन साध ले मन ’संतुलन’ में, निष्ठ हो, शुभता रसे।
मन-पात्र दूषित जल भरा, तो, हीनता-लघुता बसे ।३।
भटकाव के प्रारूप दो ही, 'क्लिष्ट' और 'अक्लिष्ट' हैं।
छूटे न यदि 'भटकन' सहज ही, मानिये वे 'क्लिष्ट' हैं ।।
'जनहित' परम हो लक्ष्य जिनका, चित्त से 'उत्कृष्ट' हैं।
जिनमें समर्पण ’तपस’ के प्रति, 'जन' सभी वे 'शिष्ट' हैं ।४।
प्रति-पल, परीक्षित - आदमी है, साधना - हरक्षण चले।
यह ताप ही - 'तप' साधता है, दिव्य हो - तन-मन खिले।।
उन्नत-तपस से - शुद्ध हो मन, भक्ति है, उद्धार है।
भव-मुक्ति है, आनन्द है, शुभ - प्रेम का संसार है।५।
अद्भुत,अप्रतिम - इस के सिवा और क्या कहें?????????????? आ. सौरभ जी ने इस विषय पर एक संक्षिप्त विवेचन भी प्रस्तुत किया है, आइये पढ़ते हैं उन्हीं के शब्दों में :-
पतंजलि अपने योगसूत्रों के माध्यम से व्यक्ति के सर्वांगीण उत्थान की बात करते हैं। ताकि अन्नमय स्तर में जीता हुआ एक व्यक्ति अपने होने के उद्येश्य परम-सत्य को पा सके और आनन्दमय कोष के स्तर को जी सके। अष्टांग योग में अपने को शरीर, मन और विचार के तौर पर साधने से लेकर सामाजिक रूप से साधने की बात करता है। यहाँ शरीर मात्र बाह्य रूप का स्थूल प्रारूप न हो कर मनस का सूक्ष्म प्रारूप भी होता है साथ ही साथ उसके होने का अर्थ भी उसके शरीर का हिस्सा माना जाता है, जिसे कारण शरीर या सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रारूप कहते हैं।
मानव-मन व्यक्तित्व का अंतःकरण है जिसके चार अवयव होते हैं, मनस, चित्त, बुद्धि तथा अहंकार। यहाँ अहंकार व्यक्ति की अस्मिता है -उसके होने का भाव। मनस, मन के पट का प्रतिरूप है, जहाँ चित्त के भण्डारण में समस्त चाही-अनचाही स्मृतियाँ विद्यमान होती हैं। यह किसी पात्र की तरह अनुभवों, अनुभूतियों और स्मृतियॊं का संग्राही होता है। यह बुद्धि ही है जो विवेक की छननी से आवश्यक को स्वीकार कर अनावश्यक को विस्मृत कर त्यागने देती है और चित्त से उनका लोप हो जाता है। यहाँ ज्ञातव्य है कि बुद्धि का पैनापन और उसका संतुलित स्तर, न कि आवश्यकता के अनुरूप चाहना, आवश्यक और अनावश्यक का निर्धारण करता है। यही उच्च अवस्था है। मनस को विचार प्रभावित करते रहते हैं। उन विचारों का सकारात्मक या नकारात्मक होना चित्त मॆं तदनुरूप स्मृतियों का होना तय करता है। विचारों के उमगने का कारण वृत्तियाँ होती हैं। विचार वृत्तियों से प्रभावित हो कर सकारात्मक या नकारात्मक (अच्छे या बुरे) हो जाते हैं। यदि आसानी से विचारों में परिशुद्धि हो जाय तो वृत्तियाँ अक्लिष्ट कहलाती हैं अन्यथा वृत्तियाँ क्लिष्ट हुईं। इन क्लिष्ट वृत्तियों का परिशोधन निरन्तरता के साथ दीर्घकालिक प्रयास की मांग करता है। (पतंजलि योग सूत्र/ समाधि पाद/ सूत्र - ५ और १४)
यदि बुद्धि से मन सध जाय तो इस अवस्था को मन का संतुलन कहते हैं, जहाँ मन हर हाल में विवेकजन्य ठहराव लिये हुए होता है. सुख या दुख में अतिरेक नहीं होता। इस अवस्था को प्राप्त करने की प्रक्रिया ही योग है (श्रीमद्भग्वद्गीता - अध्याय २ श्लोक ५०) .
इस अवस्था के अनुरूप ही सत्य की समझ बनती है। यह अवश्य सत्य एक है और मूल है किन्तु मानसिक संतुलन के अनुसार उसका आभास होता है। एक स्तर और अवस्था के दो व्यक्ति एक जैसे विचारवान होते हैं। उनके लिये सत्य की समझ एक जैसी होती है। यही कारण है कि सत्य अपने कई रूपों में स्वयं को आभासित करता प्रतीत है। यह शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक तपस ही है जो किसी व्यक्ति को इन अनुभूतियों और प्रक्रिया के लिये तैयार करता है। इस प्रकार, तप शरीर को कष्ट देने की प्रक्रिया नहीं बल्कि सत्य को प्राप्त कर प्रेम और आनन्द के संसार जीने के लिये सर्वांगीण रूप से साधने की प्रक्रिया है।
मानव-मन व्यक्तित्व का अंतःकरण है जिसके चार अवयव होते हैं, मनस, चित्त, बुद्धि तथा अहंकार। यहाँ अहंकार व्यक्ति की अस्मिता है -उसके होने का भाव। मनस, मन के पट का प्रतिरूप है, जहाँ चित्त के भण्डारण में समस्त चाही-अनचाही स्मृतियाँ विद्यमान होती हैं। यह किसी पात्र की तरह अनुभवों, अनुभूतियों और स्मृतियॊं का संग्राही होता है। यह बुद्धि ही है जो विवेक की छननी से आवश्यक को स्वीकार कर अनावश्यक को विस्मृत कर त्यागने देती है और चित्त से उनका लोप हो जाता है। यहाँ ज्ञातव्य है कि बुद्धि का पैनापन और उसका संतुलित स्तर, न कि आवश्यकता के अनुरूप चाहना, आवश्यक और अनावश्यक का निर्धारण करता है। यही उच्च अवस्था है। मनस को विचार प्रभावित करते रहते हैं। उन विचारों का सकारात्मक या नकारात्मक होना चित्त मॆं तदनुरूप स्मृतियों का होना तय करता है। विचारों के उमगने का कारण वृत्तियाँ होती हैं। विचार वृत्तियों से प्रभावित हो कर सकारात्मक या नकारात्मक (अच्छे या बुरे) हो जाते हैं। यदि आसानी से विचारों में परिशुद्धि हो जाय तो वृत्तियाँ अक्लिष्ट कहलाती हैं अन्यथा वृत्तियाँ क्लिष्ट हुईं। इन क्लिष्ट वृत्तियों का परिशोधन निरन्तरता के साथ दीर्घकालिक प्रयास की मांग करता है। (पतंजलि योग सूत्र/ समाधि पाद/ सूत्र - ५ और १४)
यदि बुद्धि से मन सध जाय तो इस अवस्था को मन का संतुलन कहते हैं, जहाँ मन हर हाल में विवेकजन्य ठहराव लिये हुए होता है. सुख या दुख में अतिरेक नहीं होता। इस अवस्था को प्राप्त करने की प्रक्रिया ही योग है (श्रीमद्भग्वद्गीता - अध्याय २ श्लोक ५०) .
इस अवस्था के अनुरूप ही सत्य की समझ बनती है। यह अवश्य सत्य एक है और मूल है किन्तु मानसिक संतुलन के अनुसार उसका आभास होता है। एक स्तर और अवस्था के दो व्यक्ति एक जैसे विचारवान होते हैं। उनके लिये सत्य की समझ एक जैसी होती है। यही कारण है कि सत्य अपने कई रूपों में स्वयं को आभासित करता प्रतीत है। यह शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक तपस ही है जो किसी व्यक्ति को इन अनुभूतियों और प्रक्रिया के लिये तैयार करता है। इस प्रकार, तप शरीर को कष्ट देने की प्रक्रिया नहीं बल्कि सत्य को प्राप्त कर प्रेम और आनन्द के संसार जीने के लिये सर्वांगीण रूप से साधने की प्रक्रिया है।
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गूढ बातों को सहजता से विवेचित करने में माहिर सौरभ जी के छंदों पर भला क्या कहें। नि:शब्द। अपने लिए तो जैसे कि गूंगा रस का आनंद लेता है पर कह नहीं पाता; बस कुछ ऐसे ही इन छंदों का रसास्वादन जारी है। आप इन छंदों तथा इन छंदों के शिल्पी से दो चार होइए, अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करिए तब तक हम तैयारी करते हैं अगली पोस्ट की।
कुछ रचनाधर्मियों ने इस छंद पर हास्य-व्यंग्यातमक, क्षृंगारिक और कुछ अन्य चुटीले सामाजिक जीवन विषयक विषयों पर छंद लिखना आरम्भ किया है। प्राप्त होते ही उन के भी छंद पढ़ेंगे हम एक एक कर के।
[छंदों के साथ ऑडियो फाइल्स [एम्बेड कोड के साथ या सिवाय, जैसा भी हो] का भी स्वागत है| इस विषय में यदि कोइ शंका हो तो ई मेल के द्वारा पूछने की कृपा करें]
जय माँ शारदे!
सौरभ जी के छंदों के बारे में क्या कहें। हर छंद सधा हुआ है और जिस तरह से सौरभ जी ने हरिगीतिका को साधा है, बधाई तो बहुत बहुत कम पड़ेगी। इसलिए मौनरहकर इन छंदों का आनंद लेना ही श्रेयस्कर है
जवाब देंहटाएंआ. सौरभ जी का परिचय, उनके छंद, उनका स्वर, पठन एवं विवेचन....सभी बहुत भाये. आपका बहुत आभार इस प्रस्तुति के लिए. आनन्द आ गया.
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण रचना और विवेचना |
जवाब देंहटाएंबधाई
आशा
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी की रचना इतनी गूढ़, गहन, गंभीर एवं प्रभावशाली है कि उसकी शान में कुछ कहना मुझ जैसी नवोदित रचनाकार के लिये कुछ उसी तरह है जैसे पहली कक्षा का बच्चा किसी पी एच डी के शोध पत्र पर कोई टिप्पणी करने की धृष्टता करे ! उनकी विवेचना ने 'क्लिष्ट' को 'अक्लिष्ट' बनाने में बहुत सहायता की है ! उनका बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार !
जवाब देंहटाएंश्री सौरभ पाण्डेय जी ने हरिगीतिका में जीवन-दर्शन को बहुत सुगढ़ता के साथ प्रस्तुत किया है।
जवाब देंहटाएंसौरभ जी और नवीन जी को बधाई।
प्रश्न हैं हर मोड़ से -----=हर मोड पर होता है....
जवाब देंहटाएंजीवन दर्शन दाई इस रचना के लिए आभार .
जवाब देंहटाएंभाई नवीनजी, आपकी सदाशयता का मैं हार्दिक सम्मान करता हूँ कि आपके माध्यम से मेरे छंद सुधी-पाठकों तक पहुँच सके हैं. समस्त पाठकों और सदस्यों को मेरा सादर वन्दन.
जवाब देंहटाएंभाई कपिल दत्त के स्वर छंद के अन्वर्थ की गहराई को संप्रेषित कर सकने में यथोचित सक्षम हैं. बधाई.
--सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
सौरभ जी!
जवाब देंहटाएंपठनीय ही नहीं मननीय और अनुकरणीय हरिगीतिका छंद की प्रस्तुति हेतु आभार.
ह्रदय गदगद हो गया ...सौरभ जी के छंदों को पढ़कर
जवाब देंहटाएं♥
जवाब देंहटाएंआदरणीय सौरभ जी के छंद पढ़वाने के लिए
आपका आभारी हूं नवीन जी !
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'जी के शब्द काम में लूं तो पठनीय , मननीय और अनुकरणीय छंदों की प्रस्तुति के लिए आभार !
समस्यापूर्ति परिवार को त्यौंहारों के इस सीजन सहित दीपावली की अग्रिम बधाई-शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
आभारी हूँ, आदरणीय सलिलजी.
जवाब देंहटाएंमेरे प्रथम पुष्प पर आपकी दृष्टि आनन्द का सत्विक कारण बन गयी है.
सुरेन्द्रजी का आभार.
राजेन्द्र स्वर्णकारजी की ड्यौढ़ी हो आया इस बार. आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिये उत्साह का कारण है.
सादर.. .
आदरणीय भाई सौरभ जी, इस अद्भुत ज्ञान को सरल और सरस ढंग से हरिगीतिका छंदों में आपने कुशलता पूर्वक ढाल कर वास्तव में हम सभी साहित्य प्रेमियों के साथ बड़ा ही उपकार किया है आपका आभार और बधाई...आपके इस गीत को प्रभावशाली सुन्दर और स्पष्ट स्वर देने के लिए भाई कपिल जी को भी धन्यवाद ...
जवाब देंहटाएंडॉ. बृजेश
बृजेशभाईसाहब, आपकी टिप्पणी तथा प्रशंसा से अभिभूत हूँ.
जवाब देंहटाएंसादर.
जिनमें समर्पण ’तपस’ के प्रति, 'जन' सभी वे 'शिष्ट' हैं ..
जवाब देंहटाएंसधे हुवे ...धार दार छंद .. सौरभ जी ने तो आज समा ही बाँध दिया है ... क्या कमाल के छंद हैं ... यदि ऐसे मनीषी प्रयास करेंगे तो ये विधा दिन दूनी रात चौगनी आगे बढ़ेगी ...
इन छंदों को पढ़ना और सुनना दोनों ही अद्भुत अनुभव रहे!
जवाब देंहटाएंउत्तम प्रस्तुति!
सौरभ जी को हार्दिक शुभकामनाएं!
आपकी पोस्ट साक्षात गीता है
जवाब देंहटाएंयह 'सत्य', 'निज अन्तःकरण' का - 'सत्व-भासित ज्ञान' है।
मन का कसा जाना, कसौटी - पर 'मनस-उत्थान' है।।
यथा सन्हरते चायं कूर्मंगानीव सर्वश: ....जिस प्रकार कछुआ अपने अंगो कोसमेत लेता है--यानी इन्द्रियों से विषयों का निग्रह -सम्बुद्धि के लिये आवश्यक है)
जो कुछ मिला है आज तक, क्या - है सुलभ? बस होड़ से।
इस जिन्दगी की राह अद्भुत, प्रश्न हैं हर मोड़ से ।१।
इहैव तर्जित: सर्गो येषाण साम्ये स्थितं मन: --जिसका मन समभव में स्थित है उसके द्वारा जीवित अवस्था में ही ये संसार जीत लिया गया है
अब नीतियाँ चाहे कहें जो, सच मगर है एक ही।
जब तक न हो मन स्वच्छ-निर्मल, दिग्भ्रमित है मन वही।।
( यथा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ..जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल से तर जायेगी तब तू सुनने योग्य और सुने हुये केवैराग्य कोप्राप्त होगा )
भटकाव के प्रारूप दो ही, 'क्लिष्ट' और 'अक्लिष्ट' हैं।
छूटे न यदि 'भटकन' सहज ही, मानिये वे 'क्लिष्ट' हैं ।।
'जनहित' परम हो लक्ष्य जिनका, चित्त से 'उत्कृष्ट' हैं।
जिनमें समर्पण ’तपस’ के प्रति, 'जन' सभी वे 'शिष्ट' हैं ।४।
दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को बोलने वालो केचित्त में परमात्म के प्रति निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती --और हे अर्जुन तू दैवी सम्पदा को प्राप्त हुआ है --मेरा भक्त और प्रिय सखा है .......
रति-पल, परीक्षित - आदमी है, साधना - हरक्षण चले।
यह ताप ही - 'तप' साधता है, दिव्य हो - तन-मन खिले।।
उन्नत-तपस से - शुद्ध हो मन, भक्ति है, उद्धार है।
भव-मुक्ति है, आनन्द है, शुभ - प्रेम का संसार है।५।
अनन्याश्चितयंतोमाम ये जना:प्र्युपास्ते
तेषाम नित्यभियुक्तानाम योगक्षेमम वहाम्यहम ... और क्या चाहिये यदि परात्पर में अखण्ड बुद्धि है और सम्पूर्ण समर्पण है तो प्रिय वस्तु की प्राप्ति और तदनंतर उसकी रक्षा नारायण स्वयँ कर देते हैं --सौरभ साहब !!!
अपकी प्रस्तुति अप्रतिम और विलक्षण है --गीता आपके जीवन मेंनि:सन्देह बसी होगी वरना अभिव्यक्ति में इतनी गहराई और सहजता से इस दर्शन कोपिरोना आसान कार्य नहीं है --आपको नमन इस प्रस्तुति के लिये !!!!!