सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन
आ. श्याम गुप्त जी के नाम से शायद ही कोई काव्य रसिक ब्लॉगर हो, जो अपरिचित हो। छंद और साहित्य से इन का जुड़ाव जगजाहिर है। अगीत विधा पर आप ने काम किया है। स्वभाव से ही प्रयोगधर्मी और शूर्पणखा जैसे विषय पर अपनी लेखनी चला चुके श्याम जी के हरिगीतिका छंद शोभायमान कर रहे हैं आज की पोस्ट को
अनुरोध है हरिगीतिका में छंद एक रचाइए।
सुंदर सरस शब्दावली में उचित भाव सजाइए।।
सोलह तथा बारह कला फिर अंत में लधु-दीर्घ हो।
सोलह तथा बारह कला फिर अंत में लधु-दीर्घ हो।
मिल जाय शुभ शुचि छंद कोई पूर्ण यह अनुरोध हो ।१।
['कला' यानि 'मात्रा', हरिगीतिका छंद के बारे लिखने का अनुरोध कर रहे हैं श्याम जी]
त्यौहार प्रिय मानव जगत में सौख्य का आधार है।
उत्सव जहां होते न वह भी क्या भला संसार है ?
त्यौहार बिन जीवन-जगत बस व्यर्थ का व्यापार है।
त्यौहार बिन जीवन-जगत बस व्यर्थ का व्यापार है।
हिल मिल उठें बैठें चलें यह भाव ही त्यौहार है।२।
[वाक़ई उत्सव विहीन संसार का मज़ा ही क्या है, और त्यौहार की व्याख्या तो भई वाह,
क्या कहने हैं इस परिभाषा के]
हर इक कसौटी पर सफल तिय, कार्य दक्ष सदा रही ।
युग-श्रम विभाजन के समय थी पक्ष में गृह के वही।।
हाँ, चाँद -सूरज की चमक थी क्षीण उसकी चमक से ।
हाँ, चाँद -सूरज की चमक थी क्षीण उसकी चमक से ।
वह चमक आज विलीन है निज देह- दर्शन दमक से।३।|
तिय = स्त्री
जाहिर सी बात है हर सिक्के के दो पहलू होते हैं| रचनाधर्मियों का यह कर्तव्य बनता है कि उन दोनों पहलुओं पर ईमानदारी से अपनी राय व्यक्त करें| उस परिपाटी का ही अनुपालन करते हुए छंद से छंद निकालने के क्रम में श्याम जी ने गढ़ा यह तीसरा छंद। साधना दीदी की पोस्ट के छंद 'है आज की नारी निपुण हर कार्य में वह दक्ष है" से प्रस्फुटित हुई थी इस छंद की प्रेरणा। आ. प्रतुल जी ने भी इस छंद की काफी तारीफ की थी तभी। पुराने समय में जब मंचों पर समस्या पूर्ति का बोलबाला हुआ करता था,उस ज़माने में कवि एक दूसरे के छंदों के ऊपर न केवल ऐसे ही प्रस्तुतियाँ देते थे, वरन तार्किक अभिव्यक्तियों पर खुल कर दाद भी देते थे| प्रात:स्मरणीय परमादरणीय गुरूजी स्व. कविरत्न श्री 'प्रीतम' जी के साथ अटेंड किये गए कुछ कार्यक्रमों में ऐसे कुछ अनुभवों से साक्षात्कार हुआ था| उस पुरातन काल को पुन: जीवंत करने के लिए श्याम भाई जी का बहुत बहुत आभार। सकारात्मक सृजन का यह क्रम आगे भी जारी रहे।
श्याम जी के छंदों पर आप अपनी बहुमूल्य राय प्रस्तुत करें और हम तैयारी करते हैं अगली पोस्ट की।
जय माँ शारदे!
[सभी चित्र गूगल से साभार]
हाँ, चाँद -सूरज की चमक थी क्षीण उसकी चमक से ।
जवाब देंहटाएंवह चमक आज विलीन है निज देह- दर्शन दमक से।
क्या बात है!! सुन्दर और सामयिक छंद है.
बहुत ही सुन्दर छंद हैं श्याम जी के ! मेरे छंद के प्रत्युत्तर में उनके इस छंद का स्वागत है ! दिग्भ्रमित नारी का मार्गदर्शन करने के लिये आपका धन्यवाद श्याम जी !
जवाब देंहटाएंअपनी छवि स्थापना हित सोचना होगा उसे,
निज देह दर्शन दमक का सुख छोड़ना होगा उसे,
अपने सुयश की ध्वजा को ऊँचा उड़ाने के लिये
दम घोंटती हर हवा का मुख मोड़ना होगा उसे !
साभार !
बहुत सुन्दर...आनन्द आ गया.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार ||
जवाब देंहटाएंआप सभी के छंद पढने के बाद तो लग रहा है कि हमें तो सबसे अन्त में आना चाहिए था। बडा काम्पलेक्स सा हो रहा है। बहुत ही अच्छे छंद।
जवाब देंहटाएंत्यौहार बिन जीवन-जगत बस व्यर्थ का व्यापार है
जवाब देंहटाएंहिल मिल उठें बैठें चलें यह भाव ही त्यौहार है...
श्याम जी के छंदों ने तो मन मोह लिया ... सामयिक और वर्तमान को परिलक्षित करते हुवे रचनाएं होँ तो समाज का आइना बन जाती हैं ... ये छंद भी इसी श्रेणी में हैं ...
तीनों ही छंद भाव और कला की दृष्टि से संपूर्ण हैं। बहुत बहुत बधाई श्याम गुप्त जी को
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंहर प्रविष्टि में हरिगीतिका का भिन्न-भिन्न रूप मन और इस मंच को सरस बना रहा है।
जवाब देंहटाएंश्री श्याम गुप्त जी को सुंदर छंदों के लिए बधाई।
धन्यवाद नवीन जी ,सुंदर व समीक्षात्मक प्रस्तुति के लिए ....
जवाब देंहटाएं---धन्यवाद महेंद्र जी ,कैलाश जी ,झंझट जी,सज्जन जी,
धन्यवाद -रविकर, उड़न तश्तरी व वन्दना जी ...
धन्यवाद --साधना जी ---आभार ..सुंदर प्रति-छंद हेतु ..
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ..दिगंबर जी..साहित्य होना ही चाहिए समाज का आइना ...
धन्यवाद ..अजित जी ...अप तो ध्वज-वाहक हैं जो सदा ही वरेण्य होते हैं ... आभार ..
आप सरस्वती -पुत्र है नि:सन्देह !! भाषा बोल रही है और विन्यास भी !! हरिगीतिका और त्यौहार दोनो की समर्थ परिभाषा आपने शब्दबद्ध की है बहुत ही खूबसूरती के साथ -quotable है!!! -- लेकिन युग श्रम विभाजन के समय नारी ने गृहकार्य चुना --वर्तमान समय नैतिक पतन की पराकाष्ठा पर जी रहाहै इसलिये स्त्री ज़िस बन रही है -- आभा मन्द हो रही है -- बहुत हे समर्थ पंक्तियाँ जिनमें समय विडम्बना उभर आयी है !! आपको नमन श्रद्धेय डा श्याम गुप्त साहब !!
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